अवसर
गांव में रहनेवालों के जीवन में परिवर्तन की बूंद
अमेरिका से मासकॉम और फ्रांस से एमबीए करने के बाद रुस्तम सेनगुप्ता विदेश में अच्छी तनख्वाहवाली नौकरी कर रहे थे, मगर भारत के पिछड़े गांव और वहां रहनेवालों की समस्याओं ने रुस्तम को इस कदर अपनी ओर खींचा कि वे -‘बूंद’ नामक एक मॉडल के साथ अपने देश लौट आये. आज रुस्तम बूंद के माध्यम से विभिन्न गांवों में सौर प्रकाश, कीट नियंत्रण उपाय और पेयजल की सुविधा उपलब्ध करा रहे हैं.
यूं तो मेरे माता-पिता बंगाल के हैं, लेकिन मेरा जन्म दिल्ली में हुआ और मैं यही पला-बढ़ा. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली के सेंट कोलंबस स्कूल से प्राप्त हुई. इसके बाद मैंने इंजीनियरिंग की और फिर मासकॉम करने के लिए अमेरिका चला गया. मासकॉम की पढ़ाई पूरी करने के बाद मैंने अमेरिका में ही साढ़े चार वर्ष तक नौकरी की. इसके बाद मैं एमबीए करने के लिए फ्रांस चला गया और कोर्स पूरा करने के बाद कुछ समय फ्रांस में नौकरी करता रहा. इसके बाद मैंने भारत वापस लौटने का फैसला किया और यहां आकर ‘बूंद’ की नींव रखी.बूंद की शुरुआत
ऐसा नहीं है कि बूंद की शुरुआत करने का ख्याल मुङो अचानक ही आया हो. जब मैं दिल्ली में पढ़ रहा था, तभी मुङो लगता था कि मैं कुछ ऐसा काम करूं, जिससे मेरे देश और यहां के लोगों को कुछ फायदा हो. मगर उस वक्त पढ़ाई का सिलसिला आगे बढ़ता गया और मैं दिल्ली से अमेरिका, अमेरिका से फ्रांस पहुंच गया. फ्रांस में एमबीए करने के दौरान मुङो एक कोर्स के सिलसिले में एक गांव में डेढ़ महीने रहना पड़ा. तभी मैंने गांव में रहनेवाले लोगों के जीवन में आनेवाली समस्याओं को करीब से जाना. मैंने फैसला किया कि मैं इन लोगों के जीवन में बिजली, पानी जैसी मूलभूत जरूरतों को दूर करने का प्रयास करूंगा. उसी वक्त मेरे इरादों में ‘बूंद’ ने जन्म ले लिया. इसके बाद मैं फ्रांस वापस लौट गया और एमबीए की पढ़ाई पूरी कर वहां जॉब करने लगा. जॉब के साथ-साथ ही मैंने अपने इरादे को हकीकत में बदलने के लिए रिसर्च वर्क करना शुरू कर दिया. कई तरह की रिसर्च करने के बाद जब मेरा बिजनेस प्लान पूरी तरह से तैयार हो गया, तब मैंने जॉब छोड़ी और भारत आकर बूंद को स्वरूप में ढालना शुरू कर दिया.
बूंद को व्यवसाय बनाना था, एनजीओ नहीं
बूंद की शुरुआत भले ही मैंने अकेले की, लेकिन तीन-चार महीनों में ही मुङो लोगों को इतना सहयोग मिलने लगा कि आगे का रास्ता अपने आप ही बनता चला गया. अगर लोगों का साथ नहीं मिला होता, तो शायद आज बूंद अपनी पहचान नहीं बना पाया होता. बूंद के सफर को आसान बनाने में आइआइएम सेंटर फॉर इनोवेशन इनक्यूवेशन एंटरप्रेन्योरशिप, अहमदाबाद के कुछ प्रोफेसर्स और वहां के लड़कों ने मेरी काफी मदद की. उन्होंने इस बात पर पूरा जोर दिया कि कैसे गांव में सोलर एनर्जी पहुंचाने के इस काम को व्यवसाय का रूप दिया जाये और यह काम एनजीओ में परिवर्तित न हो पाये. क्योंकि व्यवसाय के रूप में इस काम की शुरुआत करने का एक दूसरा मकसद गांव में रोशनी पहुंचाने के साथ वहां के युवाओं को रोजगार देना भी था. इस दौरान कई विशेषज्ञों ने हमारे लोगों को इस काम की ट्रेनिंग देने में मदद की.
उपलब्ध करायी लोन की सुविधा
गांव में रहनेवाले अधिकतर लोगों के पास इतने पैसे नहीं होते कि वे हमारे प्रोडक्ट्स को पूरे पैसे देकर खरीद सकें. इसके लिए हमने गांववालों को छोटे-छोटे लोन दिलाने की सुविधा भी उपलब्ध करायी, ताकि वे हर महीने छोटी-छोटी किश्त चुका कर इन प्रोडक्ट्स को खरीद सकें और रोजमर्रा के जीवन में बिजली, पानी की समस्या से छुटकारा पा सकें. यदि कोई अपने घर में दो बल्ब, एक पंखे की व्यवस्था के लिए 10,000 रुपये की लागतवाला सोलर यूनिट लगवाना चाहता है, तो वह लोन के माध्यम से एक वर्ष तक प्रतिमाह 120 रुपये की किश्त देकर अपने घर में रोशनी की व्यवस्था कर सकता है.
रोजगार देने पर पूरा जोर
सोलर लैंप या फिर सोलर एनर्जी से चलनेवाले अन्य उपकरणों को बनाने, उनकी सर्विसिंग करने के लिए हमें कई लोगों की जरूरत पड़ती है. ऐसे में हमारा इस बात पर पूरा जोर होता है कि सुविधाओं के साथ हम गांव के लोगों को अपने काम से जोड़ कर उन्हें रोजगार भी दे सकें. उत्तर प्रदेश व राजस्थान के गांवों में हमारे जितने भी ऑफिस हैं, हमने वहां एंप्लॉई के रूप में वहीं के लोगों को रखा है. हमारी अपनी टीम में इस वक्त 22 लोग हैं. 50 से 60 लोग पार्टटाइम कमीशन पर काम करते हैं. हम गांवों में 7,000 से भी ज्यादा सिस्टम लगा चुके हैं. कई सोलर लाइटें लगायी हैं. इसके अलावा हम उन क्षेत्रों में काम करते हैं, जहां लोगों को मदद की जरूरत होती है. जैसे 2010 में जब लद्दाख में बाढ़ आयी थी, तब हमारी पूरी टीम ने वहां के नौ गांवों में बिजली और पीने के पानी की सुविधा उपलब्ध करायी थी. हाल में उत्तराखंड में हुई तबाही के बाद इस वक्त हमारी टीम वहां के गांवों में सुधार लाने का प्रयास कर रही है.
एक नहीं, सामने थी तीन बड़ी चुनौतियां
बूंद को पहचान देने में मुङो एक नहीं, बल्कि तीन बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ा. इनमें सबसे बड़ी चुनौती थी फाइनेंस की. मैंने एक ऐसे क्षेत्र में काम करने का फैसला किया था, जहां सरकार भी कोई खास सुधार नहीं कर पा रही थी. ऐसे में मुङो व्यवसाय को आगे बढ़ाने के साथ अन्य कई प्रकार के खर्चो का सामना करना पड़ता था. जैसे गांव-गांव जाने के लिए मुङो काफी पैसे खर्च करने पड़ते थे. खाने-पीने की व्यवस्था करनी पड़ती थी. यहां तक कि रहने के लिए जगह न मिलने पर टेंट लगा कर रहने के लिए भी तैयार रहना पड़ता था. मेरे लिए दूसरी चुनौती थी बूंद को आगे बढ़ाने में मेरा सहयोग करनेवाले लोगों को अपने साथ जोड़ने की, क्योंकि इंजीनियरिंग करने के बाद अधिकतर युवा दिल्ली, मुंबई जैसे बड़े शहरों में काम करने की ख्वाहिश रखते हैं. कोई भी छोटे-छोटे गांव में जाकर कम वेतन में काम नहीं करना चाहता. मगर इस मामले में मेरी किस्मत अच्छी रही कि शुरुआत से ही मुङो अच्छे लोगों का साथ मिला. तीसरी चुनौती, जिसका मुङो सबसे ज्यादा सामना करना पड़ा, वह थी लोगों की सोच में परिवर्तन लाना. दरअसल, ऐसे कई ऑर्गनाइजेशन और सरकारी संगठन हैं, जो सुधार के नाम पर गांवों में कुछ लैंप व जरूरत की अन्य चीजें बांट देते हैं. कुछ दिनों के इस्तेमाल के बाद जब चीजें बिगड़ जाती हैं, तो इन्हें सुधारने के लिए कोई नहीं आता. जब मैं गांव में अपने सोलर लैंप व यूनिट लेकर गया, तो लोगों को लगा कि मैं भी बाकियों की तरह उन्हें बेवकूफ बना कर चला जाऊंगा. इस मानसिकता को बदलना और उनका विश्वास जीतना मेरे लिए काफी मुश्किल रहा. अपने प्रोडक्ट्स के साथ समय-समय पर उनकी सर्विसिंग की सुविधा देकर हमने लोगों को यह भरोसा दिलाया कि हम उन्हें कभी धोखा नहीं देंगे. वक्त के साथ हम पर लोगों का भरोसा गहरा होता चला गया.
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